भाग -2 ( भाग -1 यहाँ पढ़ें।)
यद्यपि सतीजी ने कुछ भी प्रकट नहीं किया। लेकिन अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए। जिनकी कथा का गान अगस्त्य ऋषि ने किया था और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई , ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं। ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्ही सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के लिए अपनी इच्छा से रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।
शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेव जी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कराते हुए बोले कि अगर तुम्हारे मन में बहुत संदेह हैं तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं ले लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ। जिस प्रकार भी तुम्हारा अज्ञानजनित भारी भ्रम भली-भाँति दूर हो, विवेक द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ? उधर शिवजी ने मन में अनुमान लगाया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब मालूम होता है कि विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है। जो कुछ राम ने रच रखा है वही होगा। तर्क करके शाखा यानी विस्तार कौन बढ़ावे। ऐसा कहकर शिवजी भगवान श्री हरि का नाम जपने लगे और सती जी वहाँ गईं , जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे।
सतीजी बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धर कर उस पथ पर आगे को चलीं जिस पर (सतीजी के विचारानुसार )मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे। सती के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे गंभीर हो गये। कुछ कह नहीं सके।धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे। सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सतीजी के कपट को जान गए। जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान श्री रामचंद्रजी हैं। स्त्री स्वभाव के असर से सतीजी सर्वज्ञ भगवान के सामने छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले। पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?
श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई चुपचाप शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? यों सोचते -सोचते सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई। श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दु:ख हुआ, तब उन्होंने अपना कुच प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दु:ख की कल्पना जो उन्हें हई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों। फिर उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी, और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं। सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से बढ़कर एक असीम प्रभाव वाले थे। उन्होंने देखा कि भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं। उन्होंनं अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं।जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में उनकी ये सब शक्तियाँ भी थीं। सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओँ को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे। उन्होंने देख कि अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे। सब जगह वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मणजी और वही सीताजी देखकर सतीजी बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं। फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी सतीजी को कुछ भी दिखआई नहीं दिया। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं जहाँ श्री शिवजी थे।
जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सार बात सच-सच कहो। सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, वहाँ जाकर आपकी ही तरह प्रणाम किया। आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया। फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है। सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि मैं अब सती से प्रीति करता हूंँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है।
तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया। शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर कैलास को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की। आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा रकर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा कि हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा। सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया। प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी दूध के साथ मिलकर दूध के भाव बिकता है, परन्तु कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है। और स्वाद(प्रेम) जाता रहता है।
अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतनी अपार चिंता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन्होंंने समझ लिया कि शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा। शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता। परन्तु हृदय अंदर ही अंदर कुम्हार के आँवे के समान जलने लगा। वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे। शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। विश्वनाथ की अखंड और अपार समाधि लग गई।
-वीरेंद्र सिंह
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