श्री रामचरितमानस में महान संत कवि गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि भरद्वाज मुनि का आश्रम प्रयाग में है। उनका श्रीरामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। मुनि तपस्वी, जितेन्द्रिय , दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं। मुनि का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है।माघ माह में जब सूर्य मकर राशि में आते हैं तब सब तीर्थराज प्रयाग आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं। प्रयाग में स्नान करने जाने वाले ऋषि-मुनियों का समाज भरद्वाज मुनि के आश्रम में जुटता है। प्रात: काल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्परभगवान् के गुणों का कथाएँ कहते हैं। ज्ञान- वैराग्य से युक्त भगवान् की भक्ति करते हैं। इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं।
भगवान् शिवजी |
एक बार जब सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट रहे थे तो मुनि भरद्वाज जी ने परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि के पैर पकड़ कर उन्हें वहीं रोक लिया। आदरपूर्वक मुनि के चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की। उनके सुयश का वर्णन किया। फिर अंत्यंत पवित्र और कोमल वाणी में बोले- हे नाथ! मेरे मन में एक संदेह है, पर उस संदेह को कहते हुए मुझे लाज भी आती है कि इतनी आयु बीत गई और अब तक ज्ञान न हुआ। भय भी लगता है कि कहीं आप यह न समझें कि मैं आपकी परीक्षा ले रहा हूं। लेकिन नहीं कहता हूँ तो मेरी बड़ी हानि होती है क्योंकि मैं अज्ञानी ही बना रहूंगा। वेदों का तत्व सब आपकी मुट्ठी में है आप ही मेरे संदेह का निवारण कर सकते हैं। हे प्रभो! संत लोग भी कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से ज्ञान नहीं होता। यह सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूं। कृपा कर मेरे अज्ञान का नाश कीजिए। संतो, पुराणों और उपनिषदों मे राम नाम के असीम प्रभाव का ज्ञान किया है। कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि अविनाशी भगवान शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं। हे मुनिराज वह भी राम की महिमा है क्योंकि शिवजी काशी में मरने वाले जीव को राम नाम का उपदेश देते हैं जिससे उन्हें परम पद मिलता है। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान मुझे समझाकर कहिए। एक राम तो अवध नरेश दशरथजी के कुमार हैं उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दु:ख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला। हे प्रभो! वही राम हैं या कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए। हे नाथ! जिस प्रकार भी मेरा यह भारी भ्रम मि़ट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए।
याज्ञवल्क्यजी मुस्कराकर बोले, श्री रघुनाथजी प्रभुता को तुम जानते हो। तुम मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम श्री रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो। हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्री रामजी की सुंदर कथा कहता हूं। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्री रामजी की कथा उसे नष्ट कर देने वाली भयंकर कालीजी हैं। श्रीराम जी कथा चंद्रमा की किरणों के समान हैं, जिसे संत रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने किया थआ, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था। अब मैं अपनी बुद्धि से वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय हुआ और जिस हेतु से हुआ, उसेे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा।
त्रेता युग में एक बार शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके सात जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया। मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसे महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना. फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी मानकर भक्ति का निरूपण किया। श्री ऱघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहत-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा लेकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के सात कैलास को चले।
भगवान् शिव |
उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे। शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे। श्री शंकर जी हृदय इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई। परंतु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदास जी कहते हैं कि शिवजी के मन में भेद खुलने का डर था लेकिन दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे। रावण ने अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी। महादेवजी चिन्ता के वश में हो गए।
उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच के साथ लिया और वह तुरंत कपट मृग बन गया।मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। कपट मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम आए और उसे खाली देखकर अर्थात वहाँ सीताजी को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू आ भर आए। श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दु:ख देखा गया। श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हदय में कुछ दूसरी बी बात समझ बैठते हैं। श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र श्री रामचंद्रजी को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया। जगत् को पवित्र करने सच्चिदानंद की जह हो, कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलिकत होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे।
सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि शंकरजी का सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं। उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय से प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती। सतीजी सोचने लगीं क जो ब्रह्मा सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?
देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं , वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे? फिर शिवजी के वचन झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ कि किसी तरह भी उनके हृद में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था
प्रस्तुति: - वीरेंद्र सिंह
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