लोकतंत्र में नेता लोग जब भी जनता के सामने दंडवत प्रणाम की मुद्रा में आते हैं तो यह दृश्य आत्मा को सुख देने वाला होता है। चुनाव के समय यह मौक़ा जनता को मिलता है। उप्र में पंचायत चुनाव होने वाले हैं। सरकार ग्राम विकास के लिए करोड़ों रुपये खर्च करती है। ग्राम प्रधान बनकर इन करोड़ों का एक हिस्सा अपने लिए भी ख़र्च करने का पूरा चांस मिलता है! इसलिए लोकल नेताओं ने ग्राम प्रधान बनने के सपने लेने शुरु कर दिये हैं। जनता और नेता दोनों एकमत हैं कि बेरोजगारी के दौर में अगर प्रधानी मिल जाए तो अगली सात पुश्तों की न सही कम से कम अपनी आर्थिक समस्याओं का समाधान पाँच साल में ही हो जाएगा। ऐसा मौक़ा हाथ से जाने देना मूर्खता होगी।
चुनाव जीतकर मलाई खाने का सपना बड़ा मस्त होता है लेकिन होता तो सपना ही है। इसमें जब तक हक़ीकत के रंग न भरे जाए तब तक ऐसा सपना मुंगेरीलाल के हसीन सपने से ज्यादा कुछ नहीं है। इन सपनों में हक़ीकत का रंग भरने का काम जनता का है। इसलिए भावी प्रधान बड़े जतन के साथ जनता को रिझाने का यत्न कर रहे हैं। एक महीने पहले ही हर मतदाता के सामने अपनी मुंडी को झुकाना शुरू कर दिये हैं। कोई मतदाता दिन में 10 बार भी सामने पड़ जाता है तो 10 बार ही सिर झुकाकर उसके हाल-चाल पूछते हैं और शाम तक 10 बार और मिलने का विनम्र निवेदन करते हैं। अब अगर चुनाव जीतने के बाद नेताजी अगले पाँच साल तक किसी के सामने अपनी मुंडी न भी झुकाए तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।
हाल-चाल पूछते-पूछते नेताजी की हालत भी अभी से पतली हो रखी है! जबकि चुनाव होने में महीनेभर का समय है! कई बार हाल-चाल पूछते वक्त सारा हिसाब-किताब गड़बड़ा जा रहा है। एक व्यक्ति ने भावी प्रधान को बताया कि उसकी बीबी बहुत बीमार है तो भावी प्रधान ने उसको आश्वासन दिया कि चिंता मत करो। तुम्हारी बीबी मेरी बीबी! मैं उसको कुछ नहीं होने दूँगा। एक अन्य मतदाता से भावी प्रधान कहते हैं कि आपके वोट की चिंता तो हमें ना हैं! तुम्हारी भौजी यानी हमारी पत्नी जी कह रही थीं कि तुम्हारा वोट तो हर हाल में हमें ही मिलेगी! उस मतदाता की पत्नी साथ में ही खड़ी थी। अपनी पति की आँखों में जैसी ही उसने अपनी आँखे डाली पति महोदय ने पत्नी का हाथ पकड़कर तत्काल वहां से रवानगी डालने में ही अपनी भलाई समझी। भावी प्रधान की भावनओं में कोई खोट नहीं थी। बस सामने वाले को दिलासा देते हुए या अपनापन जताते हुए वो क्या बोल रहे थे उन्हें कुछ नहीं समझ आ रहा था!
प्रधान बनने के सपने लेने वालों का चुनाव पूर्व का टाइम कितना जटिल होता है इसकी व्याख्या तो केवल वही कर सकते हैं। लेकिन कल्पना तो हर कोई कर सकता है। हार का खटका बराबर लगा रहता है जो उम्मीदवारों को चैन नहीं लेने देता। मतदाता को रिझाने के लिए बातों में इतनी मिठास भरकर रखनी पड़ती है कि थोड़ी देर भी कोई उनकी बात सुनले तो उसे अगले दिन ही चैकअप कराना पड़ता है कि कहीं शुगर की बीमारी तो नही हो गई?
एक भावी प्रधान का हाल तो यह है कि अगर किसी मतदाता ने उसे दिन में केवल 5 बार ही दर्शन दिए हैं तो शाम को उसके घर जाकर उससे पूछता है कि भैया आज केवल पाँच बार ही आए? अगर बीस बार न भी आ सको तो कम से कम 10-15 बार तो सामने आ ही जाया करो। वरना दिल की धड़कन बढ़ने लगती है कि कहीं आपका नैन मटक्का किसी और पार्टी के साथ तो नही चल रहा है?
चुनाव में पत्नी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है। इसका खुलासा भी स्वयं एक अन्य भावी प्रधान ने किया है। यह महोदय अचानक अपनी पत्नी की हर बात मानने लगे हैं और पत्नी के सामने आते ही हर बार उसका हाल-चाल पूछते हैं। पत्नी को बार-बार याद दिलाते हैं कि तुमने अपने मायके वालों को बहुत दिनों से कोई गिफ्ट न दिया? सब ठीक तो है न? वगैरहा-वगैरहा! किसी ने इसकी वजह पूछी तो कहने लगे कि ये चुनाव है। इसलिए कोई चांस नहीं ले सकते। पत्नी भले ही एक है लेकिन 100 वोटों का इंतज़ाम तो वो अकेले ही कर सकती है। दिन भर पूरे गाँव की औरतों से पानी-पाचा(पर-निंदा-पर-चर्चा) कर मजे लेने वाली पत्नी को इस वक्त नाराज़ करने की कोई तुक ही नहीं है। कहीं ऐंठ में टैट हो गई तो अपना वोट भी नहीं डालेगी। बाकी सौ वोट भी जाएँगे सो अलग।
भावी प्रधानों में एक सहमति भी बनी है और बाकायदा सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए है कि फलां तारीख तक केवल गर्दन झुकाकर राम-राम, नमस्ते या दुआ सलाम कर हाल-चाल से ज्यादा नहीं बढ़ेगे। फलाँ तारीख से फलाँ तारीख तक केवल दारु और दावत का दौर चलेगा लेकिन कोई गिफ्ट वगैरहा अभी नहीं देना है। चुनाव से तीन दिन पहले गिफ्ट देना शुरू करना है। अगर किसी उम्मीदवार ने तनिक भी सयानापन दिखाया तो उसकी खैर नहीं। सयानेपन से मतलब कि चुपचाप किसी मतदाता को अभी से शराब पिलाना. दावत या गिफ्ट देना वगैरहा-वगैरहा..। अगर सहमति न भी हुई होती तब भी चुनाव के इतने समय पहले लोगों को खिलाना-पिलाना शुरू करना कतई बुद्धिमानी नहीं है। फिर चुनाव में जीत तो किसी एक की ही होनी है। जीतने वाला तो अपना ख़र्च आसानी से निकाल लेगा। हारने वाले को हाथ मलने और पत्नी की तानों के अलावा कुछ नहीं मिलना। इसलिए बेहिसाब खर्च लिमिट में ही करने में भलाई है।
जनता और नेता का संबंध पहाड़ और ऊँट जैसा होता है। जनता, पहाड़ होती है और नेता ऊँट! पहाड़, ऊँचा होता है लेकिन जब तक यह ऊँट,पहाड़ के नीचे नहीं आता तब तक इसे यही लगता है कि वो ऊँचा है। चुनाव के वक्त नेता लोग इस भ्रम रूपी केंचुली को थोड़े समय के लिए उतार देते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो नेता रूपी ऊँट, जनता नामक पहाड़ के नीचे अपने आप आ जाता है। और न केवल आता है बल्कि उसके खौफ़ से दुबला भी हो जाता है। थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन इस ऊँट के पहाड़ के नीचे आने से जनता के चेहरे खिले हुए हैं।
-वीरेंद्र सिंह
उप्र पंचायत चुनाव प्रक्रिया लंबी चलनी है। इसलिए इससे संबंधित व्यंग्य में कुछ और कड़ी भी जुड़ जाए तो हैरान मत होइएगा। भगवान आपको मुझे बर्दास्त करने की शक्ति दे। मैं आपके लिए प्रार्थना करूँगा। धन्यवाद।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने।
ReplyDeleteशिवम जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteआपका व्यंग्य-लेख पढ़कर आनंद आ गया वीरेंद्र जी । हास्य-व्यंग्य लेखन में भी आप निपुण हैं । आपके ऐसे और भी लेख पढ़ना चाहूंगा ।
ReplyDeleteजितेन्द्र जी..आपका बहुत-बहुत आभार। सादर धन्यवाद।
Deleteवीरेन्द्र जी, सामाजिक विषयों पर आपकी पकड़ एवम तीखा व्यंग बड़ा रोचक होता है ..बहुत ही सुंदर सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं..मैने भी अपने "गागर में सागर "ब्लॉग पर महिला प्रधान पर एक प्रसंग डाला था ..समय मिले तो अवश्य प्रकाश डालें..सादर नमन.
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत धन्यवाद जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत ।बहुत सुंदर सराहनीय व्यंग । बधाई भी शुभ कामनाएं भी ।
ReplyDeleteआलोक जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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