किसानों और सरकार की ताज़ा बातचीत बेनतीज़ा ख़त्म
किसानों और सरकार के बीच हुई हालिया वार्ता (जो कि 4 जनवरी को हुई) बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई है। जबकि उम्मीद यह की जा रही थी कि इस बार शायद बात बन जाए। बातचीत बेनतीजा समाप्त होने एक वजह किसानों की उस मांग को माना जा रहा है जिसमें वो तीनों कृषि बिल वापस कराने की जिद पर अड़े हैं। वहीं दूसरी और सरकार क़ानूनों में आवश्यक संशोधन करने की बात कर रही है लेकिन बिल वापस लेने का कोई आश्वासन नहीं दे रही है। ज़ाहिर है कि बातचीत में सफ़लता नाम की कृपा दोनों पक्षों के अड़ियल रवैये के चलते रूकी पड़ी है। अब नज़रे अगले दौर की बातचीत पर टिक गई है जो कि 8 जनवरी 2021 को हो प्रस्तावित है। हालांकि यह दावा नहीं किया जा सकता कि अगली बातचीत में भी आंदोलन ख़त्म हो सकता है।
गन्ने में खाद डालने जाता किसान |
आगे बढ़ने से पहले तीनों कृषि क़ानूनों पर एक नज़र डालते हैं;-
1-कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020
इस कानून के अंतर्गत किसानों और व्यापारियों को मंडियों से बाहर फसल बेचने की अनुमति होगी।
2- कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020
इस क़ानून में कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के विषय में प्रावधान किए गए हैं।
3-आवश्यक वस्तु (संशोधन कानून), 2020
इसमें कुछ खाद्य पदार्थों को आवश्यक वस्तुओँ की लिस्ट से निकाल दिया गया है। इनमें मुख्य रूप से दलहन, तिलहन, अनाज, खाद्य तेल, आलू और प्याज मुख्य रूप से हैं। असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर अब इनका जितना चाहें उतना भंडारण किया जा सकता है।
सोशल मीडिया और आंदोलनरत किसान
किसान आंदोलन की चर्चा सोशल मीडिया पर काफ़ी हो रही है। चूंकि आंदोलन किसान कर रहे हैं तो उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है। आंदोलनरत किसानों की मांगे सभी के सामने हैं। उनकी अपनी चिंताएं हैं। उनकी चिंताओं से राष्ट्र कमोवेश अवगत हो चुका है। यहां तक कि विदेशों से भी इस किसान आंदोलन को समर्थन मिल रहा है। किसानों के समर्थक सरकार पर वार पर वार कर रहे हैं। आंदोलनरत किसानों की महिलाओं और बच्चों के ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं जिसमें सरकार के साथ-साथ पीएम मोदी की कड़ी आलोचना की जा रही है। सरकार भी इससे अंजान नहीं है।
कृषि बिलों के समर्थन वाले किसान
उधर हाल-फिलहाल में सरकार को भी बहुत से किसानों की सहानुभूति मिलने लगी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुत सारे किसानों के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं जिसमें वे कृषि क़ानूनों का समर्थन करते नज़र आ रहे हैं। कृषि बिलों का समर्थन कर रहे किसानों को पूरा यक़ीन है कि ये बिल उनके ख़िलाफ़ नहीं है। ये वे किसान हैं जो न तो अपना अनाज ही मंडी में बेच पाते हैं और न ही मंडी से बाहर। मंडी में अनाज बेचने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। मंडी से बाहर बेचने पर उधार करना पड़ता है। दाम भी कम मिलते हैं। छोटे-छोटे अनाज व्यापारी इनके घर से भी अनाज उठा ले जाते हैं लेकिन वो भी उधार करते हैं और बहुत कम क़ीमत देते हैं। इन किसानों की माने नए बिल से उन्हें यह फायदा होगा बड़ी-बड़ी कंपनियां भी उनके अनाज को खरीदने में दिलचस्पी दिखाएंगी और बेहतर दाम मिल सकेंगे। बहुत से किसान अपनी फसलों का पहले ही किसी कंपनी के साथ अग्रीमंट को लेकर भी चिंतित नहीं है। उनकी बातें सुनकर यह कहा जा सकता है कि ये किसान बिलों का समर्थन करते हैं।
सरकार की चुनौती
ऐसी परिस्थितियों में सरकार की चुनौती और बढ़ जाती है। यह तय है कि आंदोलनकारी किसानों को देश के सभी किसानों का समर्थन नहीं मिला है। कृषि बिलों का समर्थन करने वाले किसानों की संख्या भी कम नहीं है। ऐसे में सरकार आंदोलनरत किसानों की बात माने तो भी मुश्किलें कम नहीं होंगी। कृषि बिलों के रहते हुए कोई समाधान निकलने की संभावना भी नहीं दिख रही है। बेहतर हो कि कोई बीच का रास्ता निकाला जाए ताकि आंदोलनरत किसान राज़ी-खुशी अपने घर लौट जाएं। आंदोलनकारी किसान अपनी मांगों पर कुछ लचीला रुख अपनाएं तो शायद बात बन जाएं। वहीं राजनितिक रोटियां सेंक रहे राजनीतिक दलों की भलाई इसी में हैं कि वे इस आंदोलन से दूर रहें क्योंकि इससे किसानों का भले होने की बजाय उनका नुक़सान होगा। अंत में ... सभी पक्षों को ध्यान रखना चाहिए कि अड़ियल रुख अपनाने की बजाय व्यवहारिक रवैया अपनाने पर ही किसी नतीज़े पर पहुंचा जा सकता है। लिहाजा समझदारी इसी में है कि किसी न किसी समझौते पर पहुँचा अवश्य जाए।
-वीरेंद्र सिंह
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