एक
ज़िम्मेदार नागरिक और एक ज़िम्मेदार पत्रकार में क्या अंतर हो सकता है? हर नागरिक से अपेक्षा रहती है कि वो हर संभव एक बेहतर नागरिक बने।
संविधान प्रदत्त अधिकारों के साथ- साथ अपने कर्तव्यों के प्रति भी सजग रहे। अपने
जीवन में नित नई ऊंचाइयों को प्राप्त कर अपना और अपने देश का मान-सम्मान बढ़ाये।
दूसरे नागरिकों के प्रति न केवल संवेदनशील बने बल्कि उनके अधिकारों का सम्मान भी
करे। जरूरत पड़ने पर उनकी मदद करे और सभी के प्रति दयाभाव रखे। किसी भी तरह के
जातिवाद व संप्रदायवाद से दूर रहे। ईमानदार व सतयनिष्ठ हो। आपसी भाईचारे को बढ़ावा
देने के लिए प्रयत्नशील रहे। अपने देश के संविधान में दिए गए प्रावधानों के अनुसार
व्यवहार करे इत्यादि-इत्यादि! अगर किसी भी नागरिक में ये गुण
हैं तो स्वाभाविक तौर पर वो नागरिक एक ज़िम्मेदार नागरिक माना जाएगा। एक जिम्मेदार
नागरिक को अच्छा इंसान भी होना चाहिए।
दूसरी
तरफ़ एक पत्रकार की भूमिका काफ़ी चुनौतिपूर्ण होती है और केवल एक ज़िम्मेदार
पत्रकार ही उस भूमिका के साथ न्याय कर सकता है। पत्रकार में एक ज़िम्मेदार नागरिक
के सभी गुण होने चाहिए। हर पत्रकार से अपेक्षा रहती है कि वो उन तथ्यों से अवगत रहे
जिनसे सामान्य नागरिक आम तौर पर अनभिज्ञ होते हैं। पत्रकार सच तलाशने वाला होता
है। एक अच्छा पत्रकार संवेदनशीनल, ईमानदार व सत्यनिष्ठ होता है। पत्रकार से तटस्थ
व निष्पक्ष होने की अपेक्षा की जाती है ताकि उसकी विश्वसनीयता बनी रहे। बिना विश्वसनीयता
के पत्रकार की कल्पना करना भी मूर्खता है। पत्रकार को अपने विचारों से ज़्यादा
तथ्यों को महत्व देना होता है। पत्रकार को हर तरह के जातिवाद, संप्रदायवाद और
भेदभाव से दूर रहना होता है। पत्रकार से अपने शब्दों का चयन करते वक्त अत्यधिक
सतर्कता बरतने की उम्मीद होती है ताकि उलझन पैदा न हो। दूसरे शब्दों में कहा जाए
तो एक पत्रकार की ज़िम्मेदारी एक नागरिक की ज़िम्मेदारी कहीं ज्यादा होती है।
पत्रकार
अपनी ज़िम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाता तो इसका परिणाम देश और समाज के
साथ-साथ उसे स्वयं को भी भुगतना पड़ता है। उसकी विश्वसनीयता चली जाती है जिसके बाद
वो पत्रकार, पत्रकार नहीं रहता!
सवाल
उठता है कि क्या आज की पत्रकारिता में इन
आदर्शों को जिया जा रहा है? क्या पत्रकार ये
ध्यान रखते हैं कि वे जो कह रहे हैं वो
पत्रकारिता के आदर्शों के ख़िलाफ़ तो नहीं है? 24/7 के दौर की पत्रकारिता में कई बार ऐसा लगता है कि कहीं कुछ कमी सी है।
पत्रकारिता के आदर्श कहीं खो से गए लगते हैं। पुरज़ोर तरीके से अपनी बात रखने की
चाह में शब्दों के चयन में सतर्कता दिखाई नहीं पड़ती। बात को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत
किया जा रह है। विशेषणों का अनावश्यक प्रयोग तमगे
बांटने में किया जा रहा है। इससे कहीं न कहीं पत्रकारों की विश्वसनीयता पर
संकट मंडराने लगा है।
टीवी
पत्रकारिता में रवीश कुमार एक बड़ा नाम है। उनकी अपनी एक इमेज है। उनके समर्थक
उनकी साहसिक पत्रकारिता की तारीफ़ करते नहीं थकते। 5दिसंबर 2016, शाम 9 बजे रवीश
कुमार ने एनडीटीवी पर प्राइम टाइम कार्यक्रम में उस वक्त अस्तपताल में मौत से जूझ
रही जयललिता के रोते-बिलखते समर्थकों के संदर्भ में उत्तर भारत के कथित ‘भक्तों’ के बारे में जिन शब्दों का प्रयोग किया है।
उन शब्दों पर गौर करिए..।
“उत्तर भारत के लोग ‘भक्त’ के बारे में जानते हैं! ‘भक्त’ उत्तर भारत की राजनीति का वो नया तत्व है
जिसका नाम तो ‘भक्त’ है मगर संस्कार ‘भक्त’ के नहीं है। उसकी भाषा गालियों की है। अंध
समर्थन की है। मारने पीटने की है। मूर्खता की है। ‘भक्त’ होना सियासत में नेता का बाहुबली
बनना हो गया है। गुंडे का नया नाम है।“
इन पंक्तियों
में उलझन है। भक्त है लेकिन उसमें भक्त वाले संस्कार नहीं हैं तो फिर भक्त कैसे
माना जा सकता है? अंध समर्थन के मापदंड कौन से हैं? कहते हैं कि गुंडे का नया नाम है। गुंडे को नया नाम देने की जरूरत क्यों
पड़ गई? अगर ‘गुंडा’ है तो फिर ‘गुंडा’ ही रहने
दीजिए न। गाली देना वाला भी भक्त नहीं होता! जबकि इस परिभाषा
के अनुसार किसी भी सरकार या नेता का कोई भी अंध समर्थक जो गाली देता है, मारने
पीटने को लेकर आमादा है, मूर्ख है, वो भक्त है!
किसी
सरकार या किसी नेता के समर्थकों की ऐसी मनमानी व्याख्या पत्रकारिता के आदर्शों के
अनुरूप है या नहीं इस पर बहस की गुंजाइश बनती है। इसमें संवेदनशीलता का अभाव झलकता
है जबकि संवेदनशीलता पत्रकारिता का अहम तत्व है। अनावश्यक
विशेषणों का प्रयोग किया गया लगता है जिनके चलते भ्रम की स्थिति नज़र आती है। आप ये भी
कह सकते हैं कि पत्रकार महोदय ने शब्द चयन को लेकर थोड़ी और सावधानी बरती होती तो
अच्छा रहता। पत्रकारिता की विश्वसनीयता बनाए रखने की ज़िम्मेदारी पत्रकारों के
कंधों पर है लिहाजा उस ज़िम्मेदारी को उठाने में कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। मनमानी मत करिए। पत्रकार अपनी ज़िम्मेदारी को
जितनी शिद्दत से निभाएंगे पत्रकारिता और पत्रकारों में जनता का विश्वास उतना ही
गहरा होता जाएगा।
रविश ही नहीं ... NDTV, आज तक और इंडिया टूडे के पत्रकारों ने पत्रकारिता का जितना नुक्सान किया है शायद ही किसी ने पूरे भारत में किया होगा ... ये सिर्फ दलाल बन कर रह गए हैं ... और ये जिम्मेदारी भी पत्रकार वर्ग की है की इनको बाहर करें इस बिरादरी से ... नहीं तो हर पत्रकार को शक की नज़र से देखा जाता रहेगा ...
ReplyDeleteजो हो रहा वो ठीक नही, अच्छा लेख
ReplyDeleteनव वर्ष की शुभकामनाएं
http://savanxxx.blogspot.in
Sachmuch tarkash....
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