सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि ये लेख किसी धर्म विशेष के लोगों के संदर्भ में न होकर हर उस व्यक्ति के संदर्भ में हैं जो मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या बलि के लिए निर्दोष जानवरों की हत्या करते हैं और उसे सही ठहराने के लिए तरह-२ (कु)तर्क देते हैं। ये लोग किसी भी धर्म या समुदाय के हो सकते हैं।
दूसरी बात, मेरी नज़र में ऐसा करना एक बुराई है और इसके अलावा भी जो दूसरी बुराईयाँ हैं उन बुराईयों के प्रति भी मेरी कोई सहानुभूति नहीं है। इसलिए इस लेख से यह मतलब न निकाला जाए कि दूसरी बुराई के ख़िलाफ़ नहीं लिखा केवल मांसाहार के ख़िलाफ़ क्यों लिखा? मेरी नज़र में बुराई, बुराई होती है और हर बुराई के ख़िलाफ़ सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है।
पिछले दिनों मांस भक्षण के कारणों से जानवरों की हत्या या धार्मिक कारणों से की जाने वाली बलि या कुर्बानी के संदर्भ में लिखे लेखों पर आई टिप्पड़ियों में कुछ ब्लॉगरों ने बड़े अजीब तर्क दे-देकर मांसाहार को सही ठहराने की कोशिश की है। शाकाहारियों पर तो और भी ज़्यादा हत्या करने का आरोप लगाया है ! उनके मुख्य तर्क कुछ इस तरह से हैं;
1. क्या मृत शरीर के साथ करोड़ों जीवाणुओं का जला देना हत्या नहीं है?
२. पेड़-पौधों की हत्या क्यों करते हों?
३. अनजाने में हमें हानि पहुचाने वाले लाखों कीड़े-मकोड़ों की हत्या की बात क्यों नहीं करते?
4. मेरे धर्म के लोगों के बारे में ही क्यों, दूसरे धर्म के लोगों के बारे में क्यों नहीं?
५. वैज्ञानिक युग में भी कुर्बानी या वली का विरोध क्यों करते हैं?
६. दूसरी बुराइयों का ज़िक्र क्यों नहीं करते?
७. वैज्ञानिक जानवरों की हत्या करते हैं उसके बारे में क्यों नहीं लिखते हो?
पहली नज़र में ये सभी तर्क बड़े दमदार दिखाई देते हैं.
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? आईये देखते हैं. ज्ञानवान और सर्वगुणसंपन ब्लोगर्स के इन तर्कों में कितना दम हैं !
पहला तर्क .........मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या बलि के लिए जानवरों की हत्या करने वालों का कहना है कि मरे हुए शरीर के साथ लाखों-करोड़ों जीवाणुओं को जिंदा जला दिया जाता इसका दर्द तुम्हें क्यों नहीं होता? इसे तर्क कहें या कुतर्क इसका फैसला आप पर है.
सबसे पहला सवाल तो ये उठता है कि क्या जीवाणु और विषाणु को उसी श्रेणी में रखा जा सकता है जिस श्रेणी में इंसान या कुर्बान कर या बलि चढ़ा कर खाए जाने वाले जानवरों को रखा जाता? क्या इनमें कोई अंतर नहीं हैं ? आपको इसके लिए बहुत ज़्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रुरत नहीं क्योंकि सच्चाई आप जानते हैं. हक़ीक़त में तो जीवाणुओं और विषाणुओं की तुलना उन जानवरों से की ही नहीं जा सकती जिनका ज़िक्र हम कर रहे है। अंतर इतना अधिक है कि उनके बारे में चर्चा करना ही अपने ब्लॉग पाठकों का मूल्यवान समय ख़राब करना है. एक सुई की नोक पर करोड़ों-अरबों जीवाणुओं और विषाणुओं को नंगी आँखों से देखना तक असंभव है. इनमे से कई पृथ्वी पर वास करने वाले अपने से अरवों गुना बड़े जंतुओं के अस्तित्व के लिए खतरा है. जाहिर है कम से कम मनुष्य जैसा चिंतनशील प्राणी अपने ऊपर मंडराते हुए इस ख़तरे से हर संभव बचेगा. ठीक वैसे ही जैसे मैं और आप बचते हैं. जैसे कि बिना किसी वाजिब कारण के यदि कोई हमारे लिए ख़तरा बने तो हर वैध या अवैध तरीके से हम उस ख़तरे से बचने का प्रयास करते हैं.
लेकिन मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या वली के लिए जिन जानवरों की हत्या की जाती है उन जानवरों से मानवजाति को कौन सा ख़तरा उत्पन होता है. ये समझ से बाहर है.
फ़िर भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि इंसान के अंदर रहने वाले इन जीवाणुओं को इसलिए जलना पड़ता है क्यों कि ये मृत शरीर को छोड़कर नहीं जा पाते और न ही इन्हें व्यवाहरिक रूप से बाहर निकालना संभव है. अगर ये मृत शरीर से अलग हो पाने में सक्षम होते तो लोग इनको पकड नहीं जलाया करते कि भई आओ तुम्हें भी जलाना है. तुम्हें भी कुर्बान करना है या तुम्हारी भी बलि चढ़ानी है. भले ही ये हमारे लिए ख़तरनाक हैं. मृत शरीर को ज़लाते वक़्त इन्हें ज़लाने कि भावना कतई नहीं होती बल्कि मृत के अंतिम संस्कार की भावना होती है. ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में मरने वाले जीवाणुओं की हत्या का सवाल ही पैदा नहीं होता. फ़िर दर्द होने या न होने का सवाल ही नहीं उठता. व्यावहारिक नज़र से इसे जीवाणुओं की हत्या कहना बेतुका है और कुछ भी नहीं.
इनका दूसरा तर्क ...कि पेड़-पौधों कि हत्या क्यों करते हों?
पूछ सकता हूँ कि आप पेड़ -पौधों की कुर्बानी या बलि क्यों नहीं देते? या केवल उन्हीं का भक्षण क्यों नहीं करते ? यक़ीन मानिए इसमें किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होगा. लेकिन आप ऐसा कभी नहीं कर सकते क्योंकि आप पेड़ -पौधों और जानवरों में अंतर अच्छी तरह जानते हैं. क्या ये सही नहीं है ? भई ...पेड़ पौधों और इन जानवरों में धरती आसमान का अंतर है ये सारी दुनिया जानती है. अगर नहीं होता तो पेड़ों को काटने से भी खून बहा करता. फ़िर शायद पेड़ हत्या और पौधें हत्या जैसे शब्द आम होते जैसे कि जीव हत्या. फ़िर इनको भी कुर्बानी के लिए इस्तेमाल किया जाता. लेकिन नहीं किया जाता क्योंकि अंतर है. एक पेड़ से अगर एक टहनी तोड़ ली जाए या किसी पौधे की हरी-भरी पत्तियों को उस पौधे से अलग कर दिया जाए तो नई टहनी और पत्तियां जल्द ही जा जाती हैं. लेकिन अगर किसी बकरे की टांग तोड़ अलग कर दी जाए तो खून की धारा बह निकलती है. उसकी टांग कभी नहीं आती. ये अन्तर तो सभी को पता है. ज़ाहिर इस कुतर्क में भी कोई दम नहीं है. वैसे तो और भी अंतर हैं. लेकिन इतने ही काफ़ी हैं.
तीसरा तर्क .....कि अनजाने में हमें हानि पहुचाने वाले लाखों कीड़े-मकोड़ों की हत्या की बात क्यों नहीं करते?
हत्या का सवाल ही पैदा नहीं होता. जब भी हम सड़क पर चलते हैं तो कीड़ों-मकोड़ों का मारना या कुचलना हमारा उदेश्य कभी नहीं होता. ये सब इंसान से अनजाने में ही मारे जाते हैं. जिस वक़्त हमे ये अहसास हो जाता है कि हमारे पैर के नीचे कोई जीव है तो हम तुरंत अपना पैर उठा लेते हैं ताकि वह जीव बच सके. अगर व्यवहारिक रूप से बिना किसी कीड़े -मकोड़े को मारे वगैर हम जी सकें तो ज़रूर जीना चाहिए . यहाँ पर ये बताना भी उल्लेखनीय होगा कि जानबूझकर कीड़े मकोड़ों को मारना भी पाप है जब तक की उनसे आप के जीवन को कोई ख़तरा न हो या आप इनकी हत्या से बच सकते थे लेकिन नहीं बचे.
चौथा तर्क..... मेरे धर्म के लोगों के बारे में ही क्यों, दूसरे धर्म के लोगों के बारे में क्यों नहीं?
बिल्कुल बेकार और निराधार तर्क .........इस तरह की बुराई में जो लोग भी सम्मिलित हैं इस तरह के लेख उन सबके लिए हैं न कि किसी धर्म विशेष के लोगों के लिए ही. बुराई, बुराई होती हैं. इसका धर्म से लेना देना नहीं. हमें बुराइयों का ज़िक्र धर्म के आधार पर नहीं करना चाहिए. मेरा ऐसा मानना है.
५ वाँ तर्क.... वैज्ञानिक युग में भी कुर्बानी या बलि का विरोध क्यों करते हैं?
भाई ..एक तरफ़ तो आप वैज्ञानिक युग की बात करते हो दूसरी और धार्मिक कारणों से कुर्बानी और बलि चढाने की बात का समर्थन करते हो, ये विरोधाभास क्यों ? क्या आप ये नहीं जानते कि वैज्ञानिक सोच कुर्बानी और बलि चढ़ाने की घटनाओं का समर्थन नहीं करती. मांस खाने से होने वाले फ़ायदों को लेकर वैज्ञानिक आज तक एक मत नहीं हैं . आए दिन शाकाहार के फ़ायदों का ज़िक्र भी उतना ही होता है जितना की मांसाहार के फ़ायदों को लेकर. ज़ाहिर है इस तर्क में भी कोई दम नहीं है.
६ वाँ तर्क ........दूसरी बुराइयों का ज़िक्र क्यों नहीं करते?
क्या इस तर्क को मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या बलि के लिए जानवरों की हत्या को सही ठहराने के लिए प्रयोग किया जा सकता है? आप ख़ुद फ़ैसला करें. मेरे हिसाब तो हरगिज़ नहीं . भला ये भी कोई बात हुई? क्या आप चाहते हैं कि इस बुराई पर पर्दा पड़ जाए. आप देख सकते हैं कि हम सब अलग -बुराइयों पर अपनी राय रखते हैं. कुछ लोगों का विषय एक भी हो जाता है. लेकिन ऐसा तो कभी नहीं कि केवल इसी बुराई पर चर्चा होती है. आपके इस तर्क में कोई दम नहीं है .
७ वाँ तर्क..... वैज्ञानिक जानवरों की हत्या करते हैं उसके बारे में क्यों नहीं लिखते हो?
सबसे पहले तो ये जान लो कि मांसभक्षण, जानवरों की कुर्बानी या बलि चढ़ाने का विरोध करने वालों ने इसे कहीं भी सही नहीं ठहराया. इसलिए इस तर्क का उनका ख़िलाफ़ प्रयोग होना ही नहीं चाहिए.
दूसरी बात वैज्ञानिक जानवरों की हत्या मानव समुदाय के व्यापक हित में निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही करते हैं. ऊपर से अक्सर उनका जानवरों को मारने का तरीका भी कम दुखदाई होता है. इसलिए वैज्ञानिकों पर जानवरों की हत्या का इल्ज़ाम डालना थोड़ा ज्यादयती होगा.
देश कि भलाई के लिए जैसे सैनिक शहीद होते हैं लेकिन उन पर फक्र किया जाता है. क्योकि वो सैनिक देश, समाज और लोगों के व्यापक हित में शहीद होते हैं. ठीक वैसे ही मानवजाति के व्यापक हित के कारण मरने वालों जानवरों को स्वीकार किया जा सकता है लेकिन केवल जीव के स्वाद और धार्मिक अंधविश्वासों के कारण जानवरों की हत्या को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. मेरा ऐसा मानना है .
फ़िर भी अगर आपको ये ग़लत लगता है तो आप भी वैज्ञानिकों के संदर्भ में लिख सकते हैं अपनी बात रख सकते हैं. लेकिन इस तर्क का उपयोग आप मांसभक्षण, जानवरों की कुर्बानी या बलि चढ़ाने का विरोध करने वालों के विरुद्ध करोगे तो एक तरह से उन्हीं की बातों का समर्थन करोगे.
मांस भक्षण के कारणों से जानवरों की हत्या या धार्मिक कारणों से की जाने वाली उनकी बलि/ कुर्बानी को आप चाहे छोड़ दें या ज़ारी रखें, आप के जैसे भी विचार हों मुझे कुछ नहीं कहना. लेकिन आपको इसे ग़लत मानने वालों के ख़िलाफ़ कुतर्कों का सहारा नहीं लेना चाहिए. वैसे तो इन सभी (कु)तर्कों की काट में और भी तर्क हैं चूँकि समझदार के लिए इतना ही काफ़ी है इसलिए मैं अपनी बात यहीं खत्म करता हूँ .
अगर मेरी बातों से किसी को ठेस लगी हो तो मुझे उसके लिए खेद है. क्योंकि मेरा मक़सद किसी का दिल दुखाना तो कभी भी नहीं है . आप मेरे तर्कों के समर्थन में या फ़िर विरोध में अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र हैं.
भाई श्री विरेन्द्र सिंह चौहान जी
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन !
बहुत मेहनत से आपने पोस्ट तैयार की है , बधाई !
आभार !!
मैं काव्य में अपनी बात कहता हूं -
पर-जीवों के भक्षण से बढ़कर कृत्य नहीं वीभत्स कोई !
करुणा संबंधी पूरा गीत शस्वरं पर आकर देखा जा सकता है । स्वागत है…
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
tark bahut achhe hai lekin yeh vishay bahut gambhir hai
जवाब देंहटाएं..
जवाब देंहटाएंविरेन्द्र सिंह चौहान जी की मेधा को नमन.
मेरा भी चिंतन आपसे मिलता-जुलता है लेकिन आपने सवालियों से बिना शपथ-पत्र भरवाए उन सवालों को अपने दमदार तर्कों से न केवल हल किया अपितु कमाल की तर्कशक्ति का परिचय दिया. साधुवाद.
आपने अपने विचारों का समापन भी शानदार किया. उसके लिये पुनः साधुवाद.
..
सटीक लिखा है, लेकिन उन्हें अभी भी समझ नहीं आयेगा..
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंअरे वीरेन्द्र जी कहाँ आप भी अपना सर लेकर इस पत्थर में लड़े जा रहे हैं...
जवाब देंहटाएंइन्हें तो इंसानों और जानवरों से ज्यादा कीटाणुओं, जीवाणुओं, मक्खियों , मच्छरों आदि की चिंता है ....
पता नहीं ये अपना जीवन कैसे व्यतीत करते होंगे |
मेरे प्यारे हास्य लेखक अनवर भाई आपसे कुछ सवाल.......
१ ) क्या आप सच में इन सूक्ष्म जीवों की इतनी चिंता करते हैं या फिर तर्क के अभाव में हर जगह अपना यही राग अलापते रहते हैं ????
२) आपके घर में तो ढेर सारे सूक्ष्म जीव आपके मित्र की तरह रहते होंगे, क्यूंकि उन्हें तो पता होगा की भले ही बकरों की कुर्बानी दी जा रही हो लेकिन उनसे पूरा सौहाद्र बरता जायेगा...
ऐसी स्थिति में तो आपका घर दुनिया का सबसे अनोखा चिड़ियाघर होगा |
३) आपसे एक सवाल पुछा था मैंने अमित शर्मा जी के ब्लॉग पर उसका उत्तर भी कृपया दें...
आपकी तबियत खराब होती है तो आप क्या करते हैं ??? दवाई का सेवन करने से तो बीमारी फैलाने वाले बेचारे कीटाणु मर जाते होंगे.....
४)एक और बात जहाँ तक है पेढों को काटने और जलाने की तो एक बात बताएं आपके मांसाहार में जो मसाले प्रयुक्त होते हैं वो भी किसी पेड़ की ही फसल होते हैं उन्हें काटने पर आपको बुरा नहीं लगता ????
अरे हाँ सबसे महत्वपूर्ण बात तो मैं कहना भूल ही गया.....
आप जो ऊपर मनु स्मृति के कुछ अंश लेकर आये हैं उनसे तो लगता है की आप सभी ग्रंथों का काफी गहन अध्यन करते हैं....
निश्चित रूप से आपने कुरआन भी कई बार पढ़ी होगी....
तो क्या उसमे लिखी हर एक आयत को आप अपनी ज़िन्दगी में निभाते हैं....????
उसमे कई अच्छी बातें भी तो होंगी इन हिंसात्मक बातों के आलावा...
१००% से कम उत्तर मैं सुनना नहीं चाहूँगा...
bahut hi badiya dost.jab koi dhrm ke pichhe aankh mood kr chale to samjhana bekar h.use lagta h ki hm unke dhrm ke khilaf h.
जवाब देंहटाएंek ne mujhse kaha ki hindu chita jalate h to hawa me mojud lakho keede mar jate h.unko kon sajgaye ki wo ek kosiskiy jeev aankho se dikhte hi nhi na unme koi feeling hoti h /kuh ka jeevan to keval 10min tak hota h.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंGreat logics ! I agree completely with you.
.
aapko hriday se bahut-2 badhaayi in sabhi tarkon ke liye, aapse sau feesadi sehmat hun priy virendr ji
जवाब देंहटाएंकुतर्कों का सार्थक प्रत्युत्तर है।
जवाब देंहटाएंलेकिन इस तरह आप सारे कुतर्क खत्म कर देंगे तो वे फ़िर नये कुतर्क गढेंगे।
इस आलेख के लिये साधुवाद स्वीकारें
विरेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंक्या बात है मेरी टिप्पणी सहित अन्य टिप्पणियां अभी प्रकाशित नहीं हुईं ?
राजेन्द्र स्वर्णकार
.
जवाब देंहटाएंवीरेन्द्र जी ,
बेहद सार्थक तर्क रखे हैं आपने। संभवतः लोग समझेंगे। लेकिन यदि कोई समझना ही ना चाहे तो उसका इश्वर ही मालिक है।
.
बहुत ही दमदार लिखा है ... आपके तर्कों में जान है ... पर इन सब को अगर कोई दिल से माने तभी कोई बात है वर्ना नए तर्क और फिर तर्क पे तर्क ....
जवाब देंहटाएं7/10
जवाब देंहटाएंइस विषय पर अचानक ही पोस्टों की बाढ़ सी आई हुयी है.
आपने अपनी पोस्ट पूरी तैयारी के साथ, श्रम-पूर्वक और तर्कपूर्ण तरह से सामने रखी है. मेरे ख्याल से आपकी पोस्ट यहाँ बहुत सारी पोस्टों का उचित जवाब हो सकती है.
एक बात मैं अपने अनुभव से कहना चाहूँगा. अगर एक नियम बना दिया जाए कि जिसको भी मांस का सेवन करना हो, वो स्वयं पशु की जान ले तो हिन्दुस्तान में साठ प्रतिशत लोग पीछे हट जायेंगे.
आपने बड़ी मेहनत से ये पोस्ट लिखी है ... बड़ी तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखी है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट !
wakai , bahut mehnat se badhiya post likhi hai apne , sach hai ki aatma to sabmein hai , sab prakriti ka hissa hain chahe wah amoeba ho ya fir ped ho , dard to ped ko bhi hota hoga.
जवाब देंहटाएं"एक ने मुझसे कहा की जानवर भी तो मांस खाता है"
जवाब देंहटाएंतभी तो बोलता हू तुम सब जानवर हो ,तुममे और जानवरों की बुधि में कोई अंतर नही है
पहले आदमी बन जाओ फिर धर्म की बात करेगे
बेहद तार्किक प्रत्युतर....
जवाब देंहटाएंकिन्तु जन्मांध भी कभी रंगों की पहचान कर पाया है.
जीव-हत्या के करुण पक्ष को समझने के लिए शरीर से ऊपर उठना ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंवीरेंद्र जी, आपके विचारों से बहुत प्रभावित हुए हम..बिल्कुल सही बात कही है आपने..इस प्रकार का आलेख उच्च कोटि की श्रेणी में आता है..सुंदर वैचारिक प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंभाई साहब कृपया प्रेम की परिभाशा बतायें प्रेम के क्याा गुण होते हैं मै मानवप्रेम की बात कर रहा हूं
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और शानदार आलेख! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंवीरेंद्र जी आप भी कहा इन आँख के अन्धो को आइना दिखा रहे है इनकी सोच इनके जीने का तरीका ऐसा ही है!यदि इनकी सोच में परिवर्तन हो जाये तो क्या कहने .................
जवाब देंहटाएंआपके तर्कों का वजन बढ़ता जा रहा है .. बहुत ही सुलझी हुयी पोस्ट है ...
जवाब देंहटाएंएक दशक से अधिक समय लग गया मुझे इस अनमोल पोस्ट पर आने में। लेकिन आ गया तो पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कुतर्क तो हमारे देश में प्रत्येक ग़लत काम के लिए दे दिए जाते हैं क्योंकि अविवेकी तथा स्वार्थी लोगों का वही अस्त्र है। आपने सटीक उत्तर दिये हैं कुतर्कियों को।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत आभार सर।
हटाएंलीक से हटकर बिल्कुल एक नया विचार जो विवश करता है सोचने के लिए।
जवाब देंहटाएंतर्क का ताना-बाना ।
सुंदर रचना।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सधु जी।सादर।
हटाएं