मैंने अपनी पिछली पोस्ट में जानवर हत्या के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लिखा तो लगा की शायद मैंने अपनी बात सही से रखी है और सभी (कु)तर्कों पर अपनी बात रखने की कोशिश की. लेकिन जब इसी मुद्दे पर मैंने कुछ और ब्लोगर्स के लेख और कमेंट्स देखें तो लगा की शायद एक बार फ़िर से मुझे जानवर हत्या के पक्ष में दिए गए नए तर्कों के संदर्भ में अपनी बात रखनी चाहिए . चूँकि ये भी एक संवेदनशील मुद्दा है .
हालाँकि कुछ ब्लोगर्स के लिए इसी विषय पर और पढ़ना शायद अच्छा न लगे या फ़िर वो बोर महसूस करे तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ. वो चाहे तो इस पोस्ट को अनदेखा कर सकते हैं मुझे कोई ऐतराज़ नहीं होगा.
पिछले दिनों जाने माने ब्लोगर श्री पं.डी.के.शर्मा"वत्स" ने अपने ब्लॉग पर श्री धन्यकुमार जैन जी की एक कविता की चन्द पंक्तियाँ "मनुज प्रकृति से शाकाहारी " पोस्ट की. कविता के भाव बहुत सुंदर थे . मनुष्य की शाकाहारी प्रकृति के संदर्भ में थे . इस कविता के संदर्भ में आए कमेंट्स में से मेरी नज़र श्री ज़ाकिर अली ' रजनीश की उस टिप्पड़ी पर पड़ी जिसमें उन्होंने मांसाहार के समर्थन में कुछ बातें लिखी थी साथ ही उन्होंने अपनी उस पोस्ट का लिंक भी दे रखा था जो मांसाहार को सही साबित करने के लिए लिखी है . उस लिंक के सहारे आज उनकी पोस्ट को पढ़ा
और तर्कों को समझने की कोशिश की ..मुझे लगा कि ज़ाकिर जी के तर्कों में कुछ ऐसी बात है कि मुझे भी कुछ लिखना पढेगा.
आप ज़ाकिर अली 'रजनीश' जी के ब्लॉग पर जाकर भी इन सब बातों को देख सकते हैं .......
हालाँकि कुछ ब्लोगर्स के लिए इसी विषय पर और पढ़ना शायद अच्छा न लगे या फ़िर वो बोर महसूस करे तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ. वो चाहे तो इस पोस्ट को अनदेखा कर सकते हैं मुझे कोई ऐतराज़ नहीं होगा.
पिछले दिनों जाने माने ब्लोगर श्री पं.डी.के.शर्मा"वत्स" ने अपने ब्लॉग पर श्री धन्यकुमार जैन जी की एक कविता की चन्द पंक्तियाँ "मनुज प्रकृति से शाकाहारी " पोस्ट की. कविता के भाव बहुत सुंदर थे . मनुष्य की शाकाहारी प्रकृति के संदर्भ में थे . इस कविता के संदर्भ में आए कमेंट्स में से मेरी नज़र श्री ज़ाकिर अली ' रजनीश की उस टिप्पड़ी पर पड़ी जिसमें उन्होंने मांसाहार के समर्थन में कुछ बातें लिखी थी साथ ही उन्होंने अपनी उस पोस्ट का लिंक भी दे रखा था जो मांसाहार को सही साबित करने के लिए लिखी है . उस लिंक के सहारे आज उनकी पोस्ट को पढ़ा
और तर्कों को समझने की कोशिश की ..मुझे लगा कि ज़ाकिर जी के तर्कों में कुछ ऐसी बात है कि मुझे भी कुछ लिखना पढेगा.
आप ज़ाकिर अली 'रजनीश' जी के ब्लॉग पर जाकर भी इन सब बातों को देख सकते हैं .......
उनकी मुख्य तर्कों में ....पहला तर्क ......
" मनुष्यों की 80 प्रतिशत आबादी मांसाहार के भरोसे ही जीवित है। ऐसे में अगर
यदि 80 फीसदी लोगों से यह कहा जाए कि वे मांसाहार छोड्कर शाकाहार करने लगें, तो यह कैसे सम्भव होगा ? अगर यहॉं पर उनकी रूचि और स्वाद को भी दरकिनार कर दिया जाए, तो भी उन 80 फीसदी लोगों के लिए अन्न उगाने के लिए हमें फिलहाल चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी। ऐसे में जब दुनिया की 80 फीसदी आबादी के लिए खाने के लिए सब्जियां हैं ही नहीं, तो फिर वे खाऍंगे क्या?
इस तर्क के संदर्भ में, मैं अपनी बात रखता हूँ ..............
पहली नज़र में ही ये साफ़ पता चल जाता है कि श्री जाकिर अली 'रजनीश' जी शाकाहार बनाम मांसाहार पर जारी इस बहस में मांसाहार के पक्ष में खुल कर सामने आए हैं. लेकिन ख़ास बात ये रही कि इसे ज़ायज़ ठहराने को दिए गए उनके तर्क बिल्कुल अकाट्य हों ऐसा बिल्कुल भी नहीं हैं . आप ख़ुद देख सकते हैं.
ज़ाकिर जी का ये कहना कि दुनिया की ८० प्रतिशत आबादी अगर शाकाहार अपना ले तो
तो उनके लिए कम से कम चार पृथ्वियों की आवश्यकता होगी, बिल्कुल ग़लत है .........
ज़ाकिर जी ...ये सब अनुमानों की बातें हैं ...आप ही सोचिये जो जानवर खाए जाते हैं वो भी तो कुछ खाते ही होंगे और जो खाते होंगे वो भी इसी धरती पर पैदा होता है.
जलीय जीवों को छोड़कर बाकी सभी तो इसी धरती पर अपने भोजन का इंतजाम कर
लेते हैं....दूसरी बात पृथ्वी पर अभी भी जितनी ज़मीन का उपयोग खाद्य पदार्थों को
उगाने में होता है दुनिया भर में उससे भी ज़्यादा ज़मीन बंज़र और बेकार पड़ी है.
ज़ाहिर है उस ज़मीन का प्रयोग खाद्य पदार्थों को उगाने में किया जा सकता है. एक बात और ...हम अपनी जनसंख्याँ पर भी तो नियंत्रण कर सकते हैं......और ऐसा सभी लोग कर सकते हैं. ज़ाकिर जी केवल अनुमानों के आधार पर .....शाकाहारी भोजन की कमी का अनुमान लगाना ग़लत है. ये ऐसी समस्या नहीं है कि इसका कोई हल ही न हो.
फ़िर भी ग़र शाकाहारी भोजन की वास्तव में कमी हो भी जाए तब भी हमें अपने भोजन के लिए उन जानवरों की हत्या करने का कोई हक़ नहीं हैं जिनकी हत्या हम रोज़ करते हैं..और व्यवहारिक रूप से इन हत्याओं बहुत ही आसानी से बच सकते हैं .
ठीक वैसे ही जैसे अगर किसी के पास कोई पैसा नहीं है तो उसे दूसरे को लूटने का कोई अधिकार नहीं है. जैसे कि यदि किसी के पास कोई घर नहीं है तो उसे दूसरे का घर को लूटने का हक नहीं है. जैसे कि अगर हमें गुर्दे की ज़रुरत हो तो हमें अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए दूसरों के गुदें को छीनने का कोई हक नहीं. भले ही हमारी जान ही क्यों न चली जाए.
ज़ाकिर जी का एक तर्क ये भी है कि ---------------क्या आपको लगता है कि जो 20 प्रतिशत लोग शाकाहारी दिखते/दिखाते हैं, वे वास्तव में शाकाहारी हैं?
ज़ाकिर जी ..अगर ९० प्रतिशत लोग भी मांसाहारी हो तब भी इस तर्क का प्रयोग दूसरे जानवरों की हत्या को सही ठहराने में नहीं किया जा सकता या ये २० प्रतिशत लोग अगर शाकाहारी न भी हो तब भी आप इस तर्क को दूसरे जानवरों की मांस भक्षण , कुर्बानी या बलि के लिए हत्या के समर्थन में प्रयोग नहीं कर सकते............
जैसे की यदि दुनिया के ९५ प्रतिशत लोग भी अगर भ्रष्ट हो जाए तब भी बचे हुए ईमानदार लोगों के पास भ्रष्ट लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहने का हक है. वो बाकी बचे लोगों से ये नहीं कहेंगे कि अब जब सभी भ्रष्ट हैं तो हम सब भी बन जाते हैं.
अपने देश का ही उदहारण ले लो ..यहाँ न जाने कितने लोग बुरे कामों में लगे हुए हैं फ़िर भी बचे हुए अच्छे लोग अपने बच्चों से ये नहीं कहते कि देखो... कसाब ने कितनो लोगों को मारा ..तुम्हें भी इतने ही लोगों को मरना है या देखो कि उस मंत्री ने कितने करोड़ डकार लिए तुम्हें भी ऐसा ही करना है .....ज़ाकिर साहब ..सामान्यता ऐसा कोई भी सही सोच रखने वाला व्यक्ति ऐसा नहीं कहता.
इसलिए आपका ये तर्क जानवरों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता .
अपने एक तर्क में आपने कहा है कि--------------पाप और पुण्य की अवधारणा पर भी कम्फर्ट जोन वाला सिधांत लागु होता है प्रत्येक व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन में आने वाली चीजों को न सिर्फ सही मानता है, बल्कि उससे इतर की सभी चीजों को गलत मानता है.
अब अगर हमारे कम्फर्ट जोन में कोई सिद्धांत फिट नहीं बैठता है, तो इसका मतलब ये कत्तई नहीं हो जाता कि हम दूसरे की कम्फर्ट जोन की परवाह किये बिना उसे गरियाना शुरू कर दें।
ज़ाकिर जी का ये कहना कि दुनिया की ८० प्रतिशत आबादी अगर शाकाहार अपना ले तो
तो उनके लिए कम से कम चार पृथ्वियों की आवश्यकता होगी, बिल्कुल ग़लत है .........
ज़ाकिर जी ...ये सब अनुमानों की बातें हैं ...आप ही सोचिये जो जानवर खाए जाते हैं वो भी तो कुछ खाते ही होंगे और जो खाते होंगे वो भी इसी धरती पर पैदा होता है.
जलीय जीवों को छोड़कर बाकी सभी तो इसी धरती पर अपने भोजन का इंतजाम कर
लेते हैं....दूसरी बात पृथ्वी पर अभी भी जितनी ज़मीन का उपयोग खाद्य पदार्थों को
उगाने में होता है दुनिया भर में उससे भी ज़्यादा ज़मीन बंज़र और बेकार पड़ी है.
ज़ाहिर है उस ज़मीन का प्रयोग खाद्य पदार्थों को उगाने में किया जा सकता है. एक बात और ...हम अपनी जनसंख्याँ पर भी तो नियंत्रण कर सकते हैं......और ऐसा सभी लोग कर सकते हैं. ज़ाकिर जी केवल अनुमानों के आधार पर .....शाकाहारी भोजन की कमी का अनुमान लगाना ग़लत है. ये ऐसी समस्या नहीं है कि इसका कोई हल ही न हो.
फ़िर भी ग़र शाकाहारी भोजन की वास्तव में कमी हो भी जाए तब भी हमें अपने भोजन के लिए उन जानवरों की हत्या करने का कोई हक़ नहीं हैं जिनकी हत्या हम रोज़ करते हैं..और व्यवहारिक रूप से इन हत्याओं बहुत ही आसानी से बच सकते हैं .
ठीक वैसे ही जैसे अगर किसी के पास कोई पैसा नहीं है तो उसे दूसरे को लूटने का कोई अधिकार नहीं है. जैसे कि यदि किसी के पास कोई घर नहीं है तो उसे दूसरे का घर को लूटने का हक नहीं है. जैसे कि अगर हमें गुर्दे की ज़रुरत हो तो हमें अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए दूसरों के गुदें को छीनने का कोई हक नहीं. भले ही हमारी जान ही क्यों न चली जाए.
ज़ाकिर जी का एक तर्क ये भी है कि ---------------क्या आपको लगता है कि जो 20 प्रतिशत लोग शाकाहारी दिखते/दिखाते हैं, वे वास्तव में शाकाहारी हैं?
ज़ाकिर जी ..अगर ९० प्रतिशत लोग भी मांसाहारी हो तब भी इस तर्क का प्रयोग दूसरे जानवरों की हत्या को सही ठहराने में नहीं किया जा सकता या ये २० प्रतिशत लोग अगर शाकाहारी न भी हो तब भी आप इस तर्क को दूसरे जानवरों की मांस भक्षण , कुर्बानी या बलि के लिए हत्या के समर्थन में प्रयोग नहीं कर सकते............
जैसे की यदि दुनिया के ९५ प्रतिशत लोग भी अगर भ्रष्ट हो जाए तब भी बचे हुए ईमानदार लोगों के पास भ्रष्ट लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहने का हक है. वो बाकी बचे लोगों से ये नहीं कहेंगे कि अब जब सभी भ्रष्ट हैं तो हम सब भी बन जाते हैं.
अपने देश का ही उदहारण ले लो ..यहाँ न जाने कितने लोग बुरे कामों में लगे हुए हैं फ़िर भी बचे हुए अच्छे लोग अपने बच्चों से ये नहीं कहते कि देखो... कसाब ने कितनो लोगों को मारा ..तुम्हें भी इतने ही लोगों को मरना है या देखो कि उस मंत्री ने कितने करोड़ डकार लिए तुम्हें भी ऐसा ही करना है .....ज़ाकिर साहब ..सामान्यता ऐसा कोई भी सही सोच रखने वाला व्यक्ति ऐसा नहीं कहता.
इसलिए आपका ये तर्क जानवरों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता .
अपने एक तर्क में आपने कहा है कि--------------पाप और पुण्य की अवधारणा पर भी कम्फर्ट जोन वाला सिधांत लागु होता है प्रत्येक व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन में आने वाली चीजों को न सिर्फ सही मानता है, बल्कि उससे इतर की सभी चीजों को गलत मानता है.
अब अगर हमारे कम्फर्ट जोन में कोई सिद्धांत फिट नहीं बैठता है, तो इसका मतलब ये कत्तई नहीं हो जाता कि हम दूसरे की कम्फर्ट जोन की परवाह किये बिना उसे गरियाना शुरू कर दें।
आपके इस तर्क के विषय में मेरे ये तर्क हैं .....
ज़ाकिर जी ...अगर आप की इन बातों को व्यवहार में लागू कर दिया जाए तो फ़िर दुनिया के सारे बलात्कारी , भ्रष्टाचारी, हत्यारे , चोर- डकैत वगैरह - वगैरह को हमें बिल्कुल भी नहीं कोसना चाहिए. कसाब को भी बाइज्ज़त बरी कर देना चाहिए. क्योंकि जो कुछ भी ये करते हैं या इन्होंने किया है वो इनके कम्फर्ट जोन में सही बैठता है. इनकी नज़रों में ये कोई पाप नहीं है. भले ही ये सब हमारे लिए ग़लत हो या पाप हो या हमारे कम्फर्ट जोन में सही नहीं बैठते हैं. उनके कम्फर्ट ज़ोन में तो सही बैठते हैं. संसार में बहुत कुछ ग़लत हो रहा है. इन बातों से हमें कोई फ़र्क नहीं पढ़ना चाहिए. आपके सिद्धांत के अनुसार हमें इन पर गरियाने का कोई अधिकार होना ही नहीं चाहिए. हमे इनमे से किसी से भी कुछ कहकर इनकी सामान्य जीवन में बाधा डालने का कोई अधिकार नहीं. मैं ऐसा आपके कम्फर्ट जोन वाले तर्क के संदर्भ में कह रहा हूँ. लेकिन ज़ाकिर साहब हम तो ऐसा रोज़ ही करते हैं. आप अख़बार तो पढ़ते ही होंगे. आप देखते होंगे कि हम ग़लत काम (हमारे अनुसार) करने वालों पर कितना गरियाते हैं. और कम से कम आप जैसी सोच वाले लोगों के हिसाब से ऐसा नहीं होना चाहिए . बलात्कारी , भ्रष्टाचारी, हत्यारे , चोर- डकैत आदि के समर्थन में खुल कर बात रखनी चाहिए. लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं, अगर व्यवहार में ऐसा होने लगा तो जाकिर जी ये दुनिया रहने लायक़ नहीं रह जायेगी.
यानि कि आपका ये तर्क भी व्यवहारिक नहीं है जाकिर साहब...........
आपने एक तर्क ये भी दिया कि क्यूँ की इंसान भी एक प्रकार का जानवर ही है और प्रकृति जानवरों को एक दूसरे को मार कर खाना ही सिखाती है!...
ज़ाकिर जी मैं आपसे सहमत हूँ...अब आपको ख़ुश होना चाहिए. इसीलिए अगर मैं जानवरों वाले कुछ और काम भी करूँ तो आपको कोई ऐतराज़ नहीं होना चाहिए ...जैसे मैं आतंकवादी बन जाऊं या फ़िर रोज़ बलात्कार करूँ या फ़िर जानवरों वाले कुछ और काम करने शुरू कर दूँ? मुझे नॉएडा में निठारीकाण्ड करने वाले अभियुक्तों को आज़ाद करवाने के लिए ब्लॉग जगत में एक नई बहस शुरू करनी चाहिए. क्योंकि प्रकृति भी हमें एक दूसरे को मारकर खाना ही सिखाती है ..? और वो भी प्रकृति के अनुसार ही बच्चियों को मारकर खा गए थे.
यानि कि प्रकृति के हिसाब से बिल्कुल सही किया था और मेरे जैसे लोग इतने पागल है कि ये समझ ही नहीं पा रहे हैं. प्रकृति के अनुसार काम करने के बावजूद भी हम उनको फांसी पर चढ़वाना चाहते हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
यानि कि प्रकृति के हिसाब से बिल्कुल सही किया था और मेरे जैसे लोग इतने पागल है कि ये समझ ही नहीं पा रहे हैं. प्रकृति के अनुसार काम करने के बावजूद भी हम उनको फांसी पर चढ़वाना चाहते हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
ज़ाकिर जी ..भले ही आपने इस तर्क का प्रयोग खाने के लिए ही किया हो लेकिन अगर हम इस तर्क को जीवन में उतार लें ना ...तो परिणाम क्या होगा इसका अंदाज़ा लगाना कोई भी मुश्किल काम नहीं.
इस बहस का हल आपने बताया कि........
आप पूछोगे कि इसका सल्यूशन क्या है। तो इसका सीधा सा जवाब तो स्वयं आप सबमें से कई लोगों ने दिया है कि आपका जो मन करता है खाओ, बस दूसरों को न गरियाओ।
आप पूछोगे कि इसका सल्यूशन क्या है। तो इसका सीधा सा जवाब तो स्वयं आप सबमें से कई लोगों ने दिया है कि आपका जो मन करता है खाओ, बस दूसरों को न गरियाओ।
जाकिर जी..... गरियाने का अधिकार भले ही न हो लेकिन विरोध करने का अधिकार तो बिल्कुल है.
जानवर अपने ऊपर हुए अत्याचार का विरोध उस तरह से बोल कर नहीं कर सकता जैसे कि मनुष्य कर लेता है. वरना दर्द तो दोनो को ही बरबार का होता है. दोनो ही जीना चाहते हैं ...दोनो ही अपने मारने वाले को सामने देखकर दुम दवाकर भागते हैं. असहनीय दर्द होने पर दोनों का ही मलमूत्र तक निकल जाता है. संकट में पड़ने पर दोनो ही चाहते हैं कि कोई उनकी मदद करे और बचा ले. दोनों ही अपने या अपनों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचार का विरोध खुल कर करतें हैं. जैसा कि वफादार कुत्ता अपने मालिक की रक्षा करता है या फ़िर किसी भी जानवर का अपने बच्चों का हर कीमत पर बचाने की कोशिश बिल्कुल ऐसे ही करता है जैसे की मनुष्य करता है.
यानि कि ग़लत और अत्याचार के विरोध की प्रवत्ति मनुष्य और मारे जाने वाले दूसरे जानवरों जैसे की गाय, भेंस या फ़िर भेड़ -बकरी में लगभग समान ही पायी जाती है. लेकिन जानवरों की अपने आप को बचाने की क्षमता बहुत ही सीमित है. बात जब इस सीमित क्षमता की आती है तब स्वाभाव से संवेदनशील मनुष्य को जानवरों के पक्ष में सामने आना पड़ता है. "पेटा" नमक संगठन को तो सभी जानते होंगे ..वो भी जानवरों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचार को गलत मानते हैं तभी तो 'पेटा' अस्तित्व में आया. चूँकि मनुष्य स्वाभाव से ही चिंतनशील और संवेदनशील प्राणी है उसे दूसरों के दर्द का न केवल अहसास होता है बल्कि वो उस दर्द को कम करने के उपाय भी करता हैं. जानवरों के दर्द को जो भी लोग समझते हैं वो उनके अधिकारों के लिए आगे आ जाते हैं. इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है. इसलिए जो लोग मांसाहार, कुर्बानी या बलि के लिए जानवरों की हत्या का विरोध करते हैं उनको ऐसा करने का, उन जानवरों की हत्या के विरोध का जिनकी हत्या से आसानी से बचा जा सकता है, पूरा अधिकार है. और वो अपने इस अधिकार का इस्तेमाल भी जमकर करते हैं.
आपका ये भी मानना है कि .....शाकाहारी भोजन की कमी जब तक पूरी नहीं हो जाती तब तक मनुष्य मांसाहार करने के लिए अभिशप्त है.
ज़ाकिर साब ....मांस करने वाले सभी लोगों के साथ ऐसा बिल्कुल भी नहीं है . कुछ लोगों के साथ ऐसा हो सकता है ..उसका समाधान उन लोगों को ढूँढना चाहिए ..न कि बेसहारा जानवरों पर ही टूट पड़ना चाहिए ..अगर एक भूखी गाय अपनी भूख मिटाने के लिए मनुष्य को खाने के बजाए भूखों मरना पसंद करती है तो मनुष्य को भी कम से कम इस सिद्धांत का पालन तो अवश्य ही करना चाहिए. और अगर धरती पर खाने की चीजों की वाकई बहुत कमी है तो भी क्या हमें अपनी जनसंख्या को कम करने के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहिए? जनसंख्या कम होने से हमारी न केवल खाने की बल्कि
और भी कई दूसरी समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकता है.
अगर हम भी जानवरों जैसी प्रवत्ति को अपना ले ..यानि कि एक -दूसरे को मार कर खाने लगे तो आपको लगता है कि इंसानों और जानवरों में कोई अंतर रह जाएगा ? मेरे ख्याल से तो हम मनुष्य हैं और मनुष्य की तरह ही अपना जीवन बिताना चाहिए.
मैं....ये भी कहना चाहता हूँ कि मांसभक्षण, कुर्बानी या बलि के लिए जानवरों को मारने का विरोध करने वाले कहीं से भी रुढ़िवादी नहीं हैं. जैसे अगर कोई भी, ग़लत काम का और ग़लत काम करने वालों का (जिनकी संख्या बहुत ही अधिक है) का विरोध करे तो वो कोई रुढ़िवादी नहीं हो जाते भले ही उनकी संख्या (विरोधवालों करने वालों की) बहुत कम है. ग़लत काम तो बहुत से हैं और ग़लत काम करने वालों की संख्या हमेशा ही सही काम करने वालों से ज़्यादा ही होती है. फ़िर भी लोग ग़लत करने वालों का विरोध ही करते हैं. लेकिन उन्हें रुढ़िवादी कह कर उनका मज़ाक बनना ठीक नहीं.
देखा जाए तो "ग़लत' को सही साबित करना बहुत ही आसान है..इतना आसान कि दुनिया भर में बड़ी संख्या में निर्दोष उस ज़ुर्म की सज़ा काटते हैं जो उन्होंने किया ही नहीं और असली गुनाहगार आसानी से बच जाते हैं . ठीक वैसे ही जैसा कि मांसाहार या बलि या कुर्बानी के लिए उन जानवरों की हत्या को सही ठहराया गया या ठहराने की कोशिश की जा रही है जिनकी हत्या से हम आसानी से बच सकते हैं. ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है ...मैं सभी बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों और हत्यारों को सही साबित कर सकता हूँ और इस प्रक्रिया में ऐसे तर्क पेश कर सकता हूँ जिन्हें काटना आपको मुश्किल पढ़ सकता है. लेकिन क्या ये बहुत बड़ा काम होगा? मेरे हिसाब तो कभी नहीं! और न ही मांसाहार या बलि या कुर्बानी के लिए जानवरों की हत्या को सही ठहराने वाले इसे स्वीकार करेंगे. या करेंगें ? आप अपने दिल से पूछ कर देखिए!
नोट:- आप अपने कमेन्ट के ज़रिये अपनी बात रख सकते हैं. कमेन्ट के ज़रिए ही अपने संदेह और सवालों को रख सकते हैं. ताकि सुविधानुसार कोई भी ब्लोगर ज़बाव दे दें. कृपया मुझसे सीधे सवाल न पूछें क्योंकि ऐसा करने से ज़बाव देना जरूरी हो जाता है और मेरे पास समय का अभाव है. मैं चाहता हूँ कि आपके सभी संदेह सभी के लिए हो. मुझे समय मिला तो मैं भी आपके संदेहों पर रौशनी डालना चाहूँगा.
विरेंद्र जी,
जवाब देंहटाएंआपकी तर्क क्षमता अनुत्तर ला-जवाब है। सार्थक और विषय पर दृढ रहते हुए।
जाकिर भाई के तर्कों पर ऐसे ही कई सवाल मेरे मन में भी उठे थे,पर मैने जाकिर भाई के सौहार्द वाले व्यक्तित्व के कारण चर्चा को समाप्त कर दिया। आपने अच्छा ही किया सभी संशयप्रद तर्क खारिज कर दिये।
कायल हो गया यार आपकी तर्क क्षमता से!!!
बोर होने वाले होते रहें, सच्चाईयां प्रकट होती है तो मैं सदैव समर्थन करूंगा।
अनुमानों के आधार पर .....शाकाहारी भोजन की कमी का अनुमान है. जीवों की बची जान है, तो बचा जहान है।
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक पोस्ट।
सहमत हूँ आपके तर्कों से।
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक पोस्ट। जीवों की अगर बची जान है, तो बचा जहान है।
जवाब देंहटाएंbahut dino ke baad blog jagat me aana huaa hai so mujhe nahi pta k is vishaya par kis-kisne kya kya keh diya hai par aapki post se yah to spashta ho raha hai maamla garmaa gaya hai itni sardi me bhi....
जवाब देंहटाएंsahi ko saho or galat ko galat spasht karti aapki ye post...
kunwar ji,
बहुत सही तर्क दिए आपने हम आपकी बातो का समर्थन करते है ........
जवाब देंहटाएंला-जवाब विचारोतेजक आलेख.....आपके तर्क अपने आप में इतने अकाटय हैं कि जिन्हे सिर्फ "कुतर्क" ही काट सकते हैं.
जवाब देंहटाएं*******
जाकिर अली जी(जो कि अपने आप को अन्धविश्वास उन्मूलन से जोडते हैं) द्वारा उस पोस्ट को लगाने के पीछे भी एकमात्र उदेश्य यही था कि किसी प्रकार कुतर्कों की आड लेकर "कुरबानी" जैसी इस्लामिक कुरीतियों को जायज ठहराया जा सके.
हैरानी होती है, ये देखकर कि रूढिवादिता के विरोध,अन्धविश्वास उन्मूलन को लेकर कलम चलाने वाले भी निज धर्म कि कुरीतियों को ढांपने के लिए किस हद तक कुतर्कों पर उतर आते हैं.
आपने अपने तर्क अच्छी तरह से रखा है ...
जवाब देंहटाएंज़ाकिर जी के जवाब का इंतज़ार है ...
मांस खाना सही है या गलत ये मुझे तर्क सापेक्ष लगता है ...
पर मैं भी ये मानता हूँ कि धर्म या कुरीतियों के नाम पर जानवरों को मारना गलत है चाहे वो हिंदू धर्म में किया जा रहा हो या इस्लाम में या ईसाई धर्म में ...
विलक्षण तर्क दिया है आपने.. जाकिर साहब के जवाब का बेसब्री से इंतजार..धन्यवाद
जवाब देंहटाएं