देश में जब भी ( खासकर लोकसभा या विधानसभा) के चुनाव होते हैं तो लगभग सभी भारतीय न्यूज चैनलों पर चुनाव संबंधित कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ जाती है। बहुत से कार्यक्रम लोगों को जागरुक करने का काम करते हैं। लेकिन कईं कार्यक्रम तो केवल वक्त बर्बाद करने वाले ही होते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता और कार्यकर्ता जिस भी कार्यक्रम में एक साथ भाग लेते हैं उस कार्यक्रम से कुछ भी सार्थक जानकारी नहीं मिल पाती।
सांकेतिक चित्र |
चुनाव के समय न्यूज़ चैनलों पर होने वाली बहस कभी-कभी कितनी निरर्थक साबित हो सकती है उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है! कायदे से तर्क-वितर्क करने वाले पत्रकारों का अभाव टीवी पर न्यूज देखने वाले दर्शकों को बेहद खलता है। अधिकतर न्यूज एंकरों को पर्याप्त जानकारी का अभाव होता है। जब जानकारी ही नहीं होगी तो सियासी दलों के प्रवक्ताओं से ढंग से सवाल-जवाब कैसे होगा? परिणामस्वरूप पूरा कार्यक्रम निरर्थक बहस के रूप में सामने आता है।
सियासी दलों के प्रवक्ताओं और समर्थकों को महत्व, जनता की अनदेखी!
लोकतंत्र में जनता की राय मायने रखती है। लेकिन न्यूज चैनल वाले स्टूडियो में तो राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और राजनीतिक विश्लेषकों को बैठाते ही हैं बाहर फील्ड में भी उन्हीं पार्टियों के समर्थकों के सामने माइक कर देते हैं जिनके प्रवक्ता स्टूडियों में बैठे हुए हैं। इन सबकी दलीलें अपने-अपने दलों के समर्थन में ही होती हैं क्योंकि किसी दल का समर्थक या प्रवक्ता दूसरे दलों की अच्छी बातों और अपने दल की कमियों पर क्यों बोलेगा? लेकिन न्यूज चैनल वाले सबकुछ जानते हुए भी ऐसा होने देते हैं। अगर थोड़ा सा परिवर्तन करते हुए फील्ड रिपोर्टर सियासी दलों के समर्थकों के झुंड की बजाय सीधे जनता से संवाद करे तो कार्यक्रम को देखने में मजा भी आएगा और लोगों की राय भी पता चलेगी।
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ओपिनियन पोल का खेल
किसी भी तरह के चुनाव के वक़्त स्वभाविक रूप से उत्सुकता पैदा हो जाती है कि चुनाव में कौन जीतेगा! हमारी इस जिज्ञासा का फ़ायदा न्यूज चैनल वाले उठाते हैं। चंद लोगों की राय के आधार पर न्यूज चैनल न केवल दावा करते हैं बल्कि उस पर बहस भी करने लगते हैं कि आप इस इलेक्शन में क्यों हार या पिछड़ रहे है? लगभग सभी चैनलों पर चुनाव से ठीक पहले ओपिनियन पोल दिखाए जाते हैं। कभी-कभी चुनाव परिणाम ओपिनियन पोल में दिखाए गए रिजल्ट से मिलते जुलते भी आ जाते हैं लेकिन अधिकतर चुनाव परिणाम, ओपिनयन पोल से अलग ही आते हैं। इंटरनेट पर इस संबंध में काफी जानकारी उपलब्ध है। चुनाव परिणामों को ओपिनियन पोल के रिजल्ट से अलग होना स्वाभाविक ही है।
जरा सोचिए कि जिस सीट पर लाखों मतदाता उम्मीदवारों के भविष्य का फैसला करते हो उस सीट पर चंद लोगों से राय लेकर एक परसेप्शन तैयार किया जाता है। इस परसेप्शन को आप फेक या फर्जी परसेप्शन कह सकते हैं। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि विधानसभा क्षेत्र 'A' में 4 लाख मतदाता है। क्या उन 4 लाख मतदाताओं में से करीब 700-800 मतदाता पूरे क्षेत्र का मूड बता सकते हैं? यह पूरी तरह संभव है कि इनकी राय पर आधारित परिणाम उल्टा ही निकले। मजे की बात यह है कि न्यूज चैनल की डिबेट में इस बात पर चर्चा नहीं होती कि परिणाम ग़लत भी आ सकता है! वहाँ बहस इस बात पर होती है कि चंद लोगों से पूछकर जो रिजल्ट आया है उसके संदर्भ में फलाँ पार्टी का प्रवक्ता बताए कि उसकी पार्टी यह सीट क्यों हार रही है? चुनाव शुरु होने के कई महीने पहले से ही न्यूज चैनलों पर कथित ओपिनियन पोल की बाढ़ सी आ जाती है। इन ओपिनियन पोल में चंद लोगों से पूछकर एक परिणाम निकाला जाता है। फिर चैनलों पर प्रचार किया जाता है कि भैया फलाँ दिन इतने बजे हमारे चैनल पर देखिए कि फलाँ प्रदेश में किसकी सरकार बन रही है। हमारे कार्यक्रम में विभिन्न सियासी दलों के प्रवक्ताओं के साथ ही हमारे वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भी होंगे। न्यूज देखने वालों के मन भी जिज्ञासा पैदा हो जाती है कि भई देखें आखिर कौन जीत रहा है। बस यही उत्सुकता न्यूज चैनल वालों को इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत करने की हिम्मत देती है। यह बात अलग है कि ऐसे ओपिनियन पोलों से मनोरंजन भले ही हो जाए लेकिन जनता का इससे शायद ही कोई भला होता हो।
ओपिनियन पोल का दुरुपयोग
दूसरी बात यह है कि सियासी दल पर्दे के पीछे से अपने हिसाब से अपने पक्ष का ओपिनियन पोल तैयार करवा सकते हैं और अपने दल को विपक्षी दलों से आगे दिखा जनता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं जो कि एक तरह की बेइमानी है। लिहाजा जनता को सावधान रहना चाहिए और अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अपना वोट या मत देना चाहिए।
लोकप्रिय हैं यूट्यूब पर जनता की राय दिखाने वाले चैनल!
न्यूज चैनलों से अलग सैकड़ों लोग यूट्यूब पर जनता की राय सामने रख रहे हैं। लिहाज ये माध्यम लोगों के बीच काफी लोकप्रिय भी हो रहे है। ऐसे कई यूट्यूब चैनल हैं जिनमें सीधे लोगों की राय दिखाई जा रही है। लाखों की संख्या में लोग इन चैनलों को देखते हैं। हाँलांकि यहाँ भी सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि बड़ी चतुराई के साथ यहाँ भी दल विशेष के समर्थकों की राय को ही दिखाया जा सकता है।
पूरी तरह सार्थक बनें न्यूज चैनल!
इसमें कोई दो राय नहीं कि तमाम कमियों के बावजूद न्यूज चैनल लोगों के बीच न्यूज के सबसे लोकप्रिय साधन हैं। लिहाजा न्यूज चैनलों को चाहिए कि अपने कार्यक्रमों को हर तरह से सार्थक बनाएँ, और भी बेहतर बनाएँ क्योंकि जनता इसकी हकदार है। अगर ऐसा होता है तो निश्चित ही लोगों का भला होगा। लोकतंत्र मजबूत होगा। न्यूज चैनल जनता के प्रवक्ता बनें, सियासी दलों के नहीं! इससे न्यूज चैनलों की छवि भी सुधरेगी और लोगों को भी बेहतर और सार्थक कार्यक्रम देखने को मिलेंगे! धन्यवाद।
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