अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन। लेकिन बदलते परिवेश में लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करते हुए नेता का, नेता के लिए और नेता द्वारा शासन प्रणाली कहा जाए तो क्या ग़लत होगा? नेताओं ने अपनी हनक के चलते लोकतंत्र को ‘नेतातंत्र’ में बदला जो अब 'मज़ाकतंत्र' बनकर रहा गया है। सत्ता के लिए नेताओं ने अपराधियों से हाथ मिलाया। साम, दाम, दंड और भेद का सहारा लिया गया। सत्ता पाने के लिए हर तिकड़म भिड़ाई गई। जिसेक चलते अपराध बढ़ा, भ्रष्टाचार बढ़ा। क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, परिवारवाद और अवसरवाद हावी हो गए। देशहित हाशिए पर चला गया। पार्टीहित और स्वहित के चक्कर में नेताओं ने अपनी जिम्मेदारियों को गंगा में बहा दिया। कुर्सी मिलते ही जनता को उसी के हाल पर छोड़ दिया। उतना ही संपर्क रखा जितना जरूरी समझा। जाहिर है जनता पीछ छूट गई। नेता बहुत आगे निकल गए। क़ानून से भी उपर उठ गए। क़ानून जनता के लिए ही रह गए गया। आजकल नेता जी ख़ुदा बन गए हैं जबकि जनता अभी तक नहीं जानती कि वो है क्या बनी है? लोकतंत्र में अगर किसी के दिन फिरे हैं तो वो नेताओं हैं। जनता तो नेताओं के हाथ की कठपुतली मात्र है। जनता के पास शोर मचाने, तोड़-फोड़ कर अपना गुस्सा निकालने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है। 1990 के बाद सियासत के स्वरूप का गहन अध्ययन करें तो आप पाएंगे कि संवैधानिक जिम्मेदारियों और बाध्यताओं को दरकिनार कर वो सब कुछ बोला और किया गया और आज भी किया जा रहा है जिसके आधार पर आसानी से कहा जा सकता है कि भारत में ‘नेतातंत्र’ ने लोकतंत्र का ‘मज़ाकतंत्र’ बना दिया है। वैसे लोकतंत्र की ऐसी हालत के लिए जनता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जिसके बहुत से विकट कारण हैं और जिनका निवारण लगभग असंभव है।
इतना समझ
लें कि ‘मजाकतंत्र’ में
लोगों की ‘अपनी-अपनी
ढपली अपना-अपना राग’ वाली फितरत के चलते नेता
बहुत मजबूत हो गए हैं। आज हालत ये है कि नेताओं से सब डरते हैं। आम आदमी से लेकर
अपराधी तक। पुलिस तो ऐसे डरती है कि
नेता का अंडरवियर भी गायब हो जाए तो पूरा का पूरा पुलिस महकमा उसे ढूंढने में लग
जाता है। नेताओं की बॉडीगार्ड पुलिस, जनता के लिए मजबूरी में ही
कुछ करती है। लोकतंत्र में नेताओं को कुछ भी कहने का विशेषाधिकार है। आमजन को नहीं
है। किसी ने कुछ कह भी दिया
तो पुलिस ऐसे धर लेगी जैसे शिकारी, शिकार को दबोच लेता है। जनता के कहने से कोई नेता शायद ही गिरफ्तार
हो लेकिन नेता जिसे चाहे उसे रात में ही उठवा ले। नेताओं
ने लोकतंत्र को ‘मजाकतंत्र’ बनाकर
भरपूर फायदा उठाया है तो वहीं जनता के हिस्से में थोड़ा बहुत ही आया है। यही वजह
है कि नेताओं के पास अथाह दौलत,
रुतवा, बंगले, गाड़ियां और ऐशोआराम की हर
सुविधा मौजूद है।
ये
‘मजाकतंत्र’ में ही संभव है कि यूपी के
एक मंत्री के खिलाफ फेसबुक पर तथाकथित आपत्तिजनक बातें लिखने के चलते एक युवक को
पुलिस ने दबोच लिया। ज्ञानीजन को जैसे ही पता चला तो भड़क गए कि ये क्या ‘मजाकतंत्र’ है? मंत्री
महोदय ने तो ख़ुद लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान जमकर आपत्तिजनक और भड़काउ भाषण
दिए थे जिसके चलते चुनाव आयोग ने उन्हें चुनाव प्रचार करने से भी रोक दिया था।
जवाब में मंत्री जी ने भी कार्रवाई को सही ठहरा दिया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट तक
पहुंच गया है।
इस तरह
का ये कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी ऐसे मामले सामने आएं। आगे भी आएंगे।
कई नेता हैं जो जमकर ज़हर उगलते हैं। मगर मजाल है कि कोई उन्हें गिरफ्तार करे? आख़िर
नेता जो ठहरे। ‘मजाकतंत्र’ में तो वही होगा जैसा नेता
लोग चाहेंगे। चाहे वो संसद में
विपक्ष के रूप में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने की बजाय केवल अड़ंगेबाजी हो या
तथाकथित जासूसी पर संसद से लेकर सड़क तक बवाल काटना। तथ्य ये
भी है कि नेताओं को कोसने से अब कुछ नहीं होने वाला। बेहतर हो कि हम अपने गिरेहबान
में झांके कि हमने लोकतंत्र को ‘मजाकतंत्र’ क्यों
बनने दिया और लोकतंत्र को वापस लोकतंत्र बनाने में हमारा क्या योगदान हो सकता है?
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